आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
आज फिर इश्क़ करने की अभिलाषा है। उनको अपने आग़ोश में लूँगा यह आशा है। अरसों बीत गए है उनसे रूबरू हुए। अब बिन पल गँवाये मिल आने की जिज्ञासा है। उनके रूप का दीदार तो हमेशा करता हूँ। लेकिन हक़ीकत देखने को दिल प्यासा है। रोना धोना तो बिछड़न में हो ही जाता है। लेकिन मिलन का वक़्त है, बड़ा सोणा-सा है। पता नहीं वो कैसी होगी मुझसे दूर रहकर। सोचता हूँ ठीक होगी यह दिल को दिलासा है। अब जल्दी से मिलने की तलब लगी है दिल में। वक्त भी बहुत हो गया और अब शीतवासा है। By Hariram Regar