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4 Line Shayari in Hindi | By Hariram Regar

4 Line Shayari in Hindi | By Hariram Regar ************************************************ कभी मक्की, कभी गेंहूँ, कभी है ज्वार की रोटी।  मेरी माता बनाती है, कभी पतली, कभी मोटी।  मगर क्या स्वाद आता है, भले वो जल गई थोड़ी।  नसीबों में कहाँ सब के, है माँ के हाथ की रोटी।।                                                                                                 ©Hariram Regar ************************************************ कोई नफ़रत है फैलाता, कोई बाँटे यहाँ पर प्यार।  कहानी और किस्सों से खचाखच है भरा संसार।  यहाँ कुछ लोग अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने फिरते।  मगर किस्से नहीं कहते जहाँ खुद ही है वो गद्दार।।                                                                              ©Hariram Regar ************************************************ कोई जीने को खाता है, कोई जीता है खाने को। कोई कौड़ी बचाता है, कोई खर्चे, दिखाने को। अमीरी और गरीबी में यहाँ बस फ़र्क़ इतना है, कोई दौड़े कमाने को, कोई दौड़े पचाने को।।                                                                             ©Hariram
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Suicide Poem | By Hariram Regar

 आत्महत्या  क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया।  क्या जीवन से भारी कोई  जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में  मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती।  इस हार से ही क्यों अँधियारा ? यूँ जग को छोड़कर जाने वाले, वीर नहीं, कायर होते है। बस एक नहीं मसला जग में, हर रोज नये दायर होते है।    अब झाँकने से क्या होता पीछे, जब चुग गई चिड़ियाँ खेत यहाँ ? बाँध के मुठ्ठी लाए थे तुम, वक्त की अब वो रेत कहाँ ? तुझे सोचना था, ऐ भले मनुज! हर संकट का हल होता है।  जो आज पूर्ण ना काज हुआ, हर रोज नया कल होता है।  अरे रुको ज़रा, तुम सबर करो। जीवन क्या है? ये ख़बर करो।  यहाँ ख़ूब मौज़ मस्ती के मौके, अरे खुद की तो खुद क़दर करो।  कर्

जनसंख्या हुई हैं इतनी सारी | By Hariram Regar

जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी, पृथ्वी परेशान हैं इससे भारी, चारों ओर फैली हैं बेरोजगारी, पीछे नहीं रही है महामारी, मुँह ताकने की अब है बारी, जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी धरती सिमटकर छोटी हो गयी।  पेड़ पनपने की जगह नहीं।  खेत देख लो नाम मात्र के , जनसँख्या वृद्धि इसकी वज़ह सही।  मानव ने अपने ही पाँव कुल्हाड़ी मारी। जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी रासायनिक खाद उपयोगी इतने, देशी खाद का नाम नहीं।  बचे कुचे खेतों की हालत  आज देख लो बिगड़ रही।  इससे अब धरती है हारी। जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी सुधा सा सलिल देती थी , वे थी नदियाँ गंगा-यमुना।  हुई प्रदूषित सारी नदियाँ , पीने का पानी नहीं अधुना।  अब अकाल पड़ता बारी बारी।  जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी जंगलों में बना दिए है घर, पहाड़ों को कर दिए समतल।  हो गए सारे पशु पक्षी बेघर, सुखा दिए समुद्री दलदल।  फिर भी रहने की समस्या भारी , जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी प्रदूषण ने पाँव पसारा , वाहनों की यह लम्बी कतारें। चलने की भी जगह नहीं है , शहरों की सड़कों के किनारे। व्यस्त पड़ी है सड़कें भारी।  जनसंख्या  हुई हैं इतनी सारी यह सब तो अल्लाह की देन है।, मुस्लिमों की यह बोली

हम स्वाभिमान संग जीते है || ham swabhimaan sang jeete hai || By Hariram Regar

  कफ़न बँधे है माथे पर।  चाप-तीर, असि-ढाल रखे है।  हम शेरों से भी भिड़ जाएँ।  शौक गज़ब के पाल रखे है।  अरि आँख उठाकर देखे हम पर  खून हमारी नस नस में खोले।  "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले।  हम आन, बान और शान के ख़ातिर  अपनी जान भी सहज लुटाते है।  हम मर जाएँ, मिट जाएँ लेकिन, इज़्ज़त ना दाव लगाते है।   हम ज़ौहर करना सहज समझते, बजाय हम बैरी के हो लें।  "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले।  अंगुल-बांस के मापन से  यहाँ "पृथ्वी" तीर चलाते है।  बरदाई का दोहा सुनकर  गोरी को मार गिराते है।  बक्षीश मिले ना जयचन्दों को  पग रिपुओं के डगमग डोले।  "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले।  यहाँ राणा का भाला भारी है।  यहाँ मीरा की भक्ति न्यारी है।  माँ पन्ना का त्याग अमोल यहाँ।  यहाँ वीर जणे वो नारी है।  ना नसीब रहे भले घास की रोटी  पर राणा का ना मन डोले।  "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले।  थकी नहीं हैं कलम "हरि" की राजस्थान का गौरव गाते-गाते।  एक से बढ़कर एक शूरमा  यहाँ इतिहास के पन्

Self Respect || By Hariram Regar

स्वाभिमान(Self Respect)  जिस दिन तेरे हाथ में लाठी होगी। जिस दिन तेरी साँझ ढलेगी। वो दिन कितना प्यारा होगा? जिस दिन तू "हरि" से मिलेगी। ये लब्ज़ तेरे है, वचन तेरे है। इन वचन पे आँच न लाऊँगा। मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला। मान नहीं खो पाऊँगा। जो तेरा मेरा यह रिश्ता है।  इसका तुझको कोई भान नहीं। मेरे गाँव से तेरा क्या नाता? इसका भी तुझको ध्यान नहीं। और तेरे गाँव में तेरा "सब कुछ" है। ये बात मैं कैसे पचाऊँगा? मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला  मान नहीं खो पाऊँगा। ये इत्तिफ़ाक रहा या मक़सद था ?  इस ज्ञान का मैं मोहताज़ नहीं। मैं ज़मीं पे चलता मानव हूँ, तेरे जैसा अकड़बाज़ नहीं।  जिस घर में कोई मान न हो,  उस घर आँगन न जाऊँगा।  मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला  मान नहीं खो पाऊँगा। कितने घूँट ज़हर के पीऊँ? कितने झूठ सहन कर जीऊँ? मैं सीना ठोक के चलने वाला  ये ज़मीर ना माने झुक के जीऊँ। अरे झुकने को सौ बार झुकूँ मैं। पर हर बार नहीं झुक पाऊँगा। मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला मान नहीं खो पाऊँगा। --- Hariram Regar #SundayPoetry

Ukraine Russia War Poetry || उगते सूरज अस्त हुए || By Hariram Regar

धधक रही संग्राम की ज्वाला। ना दया बची, ना मानवता है। यहाँ कलह, कृन्दन और रूदन है। ये मानव की ही दानवता है। कहीं सिर पड़े, कहीं धड़ पड़े, यहाँ शतकों जीवन पस्त हुए है। हर रोज निकलते सपने लेकर  वो उगते सूरज अस्त हुए है।। यहाँ बच्चे हैं, यहाँ बुढ़े है, यहाँ भरी जवानी लोग घने है। यहाँ बम बारूदों के मंज़र में, लोगों पर ही लोग तने है। कई जली झुग्गी झोपड़ियाँ, कई कई सौ भवन ढहे। ख़ाक हो गए सपने सारे जहाँ घर के घर ही ध्वस्त हुए है। हर रोज निकलते सपने लेकर  वो उगते सूरज अस्त हुए है।। कैसे लिखूँ मैं दर्द पिता का ? जिनके तनय चिता पर चिर सोए। कैसे लिखूँ दर्द उन माँ का मैं? जो अपने प्यारे सुत खोए। कैसे बयाँ करूँ बहनों का दुःख? जिनकी राखी रक्त से रंजित है। कैसे दर्द कहूँ उन बच्चों का जो अपनों से अब वंचित है। कैसे लिखूँ दर्द उस दर्द का मैं जिन घर के सारे दीप बुझे। जहाँ रोने वाला बचा न कोई ये देख 'हरि' के कंपित हस्त हुए है। हर रोज़ निकलते सपने लेकर वो उगते सूरज अस्त हुए है। ---Hariram Regar #SundayPoetry

Jai Mahakal || जय महाकाल || Hariram Regar

मैं सुबह-सवेरे साँझ-अँधेरे, तेरा ध्यान लगाता हूँ।  हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ।   हे गरलधर! हे नीलकण्ठ! तुम पूरे विश्व विधाता हो।  राख-भभूति से लथपथ हो, भाँग के पूरे ज्ञाता हो।  गले में माला शेषनाग की, विष्णु के तुम भ्राता हो।  बड़ा सहारा भक्तों का हो, सब याचक तुम दाता हो।  सोच यही हर पल, हर क्षण, मैं जमकर धूम मचाता हूँ। हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ।    हे जटाधारी, कैलाशपति! तुम सृष्टि के महानायक हो।  हे स्वरमयी महाकाल अनघ! तुम ताँडव के महागायक हो।  तुम गंगाधर, तुम चन्द्रशेखर, तुम त्रिअक्षी, तुम हो अक्षर।  हे शूलपाणि! हे उमापति! हे कृपानिधि! हे शिव शंकर! तेरे नाम अनेकों है जग में, उन नाम को मैं जप जाता हूँ।  हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ।  हे व्योमकेश महासेनजनक! हे गौरीनाथ! हे पशुपति! हे वीरभद्र! हे पंचवक्त्र! हे मृत्युंजय! हे  पुरारति! हे वामदेव! हे सुरसूदन! हे भुजंगभूषण! हे भगवन! हे प्रजापति! हे शिव शम्भू! हे सोमसूर्यअग्निलोचन! हाँ तू है "हरि",  हूँ  मैं भी "हरि", पर अंतर जमीं व नभ का है।  इस धरा पे जब से आया हूँ म