आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
कब तक सड़ूँगा पिंजरे में, अब जीऊं कैसे इन रंजिशों में। अब ऊब गया हूँ जी करके , दुनिया की इन सब बंदिशों में। मैं तो हवाओ का झौंका था , जाता था हर गांव - शहर। यह थी पहले की हक़ीकत, बदल गयी अब ख्वाहिशों में। तहस - नहस हुआ है, जन - धन इस जहान का। सब कुछ थम - सा गया है, इक विषाणु की गर्दिशों में। घर में बिस्तर थक गया है, बोले तू अब तो निकल। दर्द भरा है दिल में और बाहर पुलिस की मालिशों में। क्या हाल ? ज़रा उनसे भी पूँछो, जो हर दिन कमाते खाते थे। देशबन्दी चक्कर में अब भूखे सोते बिन पर्वरिशों में। हर शख़्स परेशाँ होता है , जब संकट आये दुनिया भर में। स्वार्थ सधा है इसके पीछे, कुछ लोगों की साज़िशों में। यह विषाणु रखे चाहत सिखाने की "मानव देह सब एक है"। पर मानव तो उलझा है , धर्म और जातिगत बंदिशों में। घर पर रहे, स्वस्थ रहे, ख़त्म हो ये महामारी अब। कोई भी भूखा ना मरे , 'हरिराम' कहे अपनी गुज़ारिशों में।