आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
वो चलती फिरती यादें तेरी, जब भी ज़हन में आती है, दिल धड़कना रुक जाता है और सांसें ही थम जाती है। वो तेरी ज़ुल्फ़ों की छाया , प्रेम ख़ूब बरसाती है। वो तेरे हाथों की छुअन, तन में सिहरन लाती है। कभी ख़ुशी दे जाती है तो कभी रुलाके जाती है। वो चलती फिरती यादें तेरी, जब भी ज़हन में आती है। तेरे संग बिताये लम्हें और तेरी शरारतें मुझे रिजाती है, लेकिन सारे खुशियों के क्षण, मेरी तन्हाई खा जाती है।... फिर एक ही राह बचती है। तेरे नम्बर पर घंटी जाती है। वो चलती फिरती यादें तेरी, जब भी ज़हन में आती है। ---Hariram Regar #SundayPoetry With Hariram Regar vo chalati phirati yaaden teri, jab bhi zahan mein aati hai, dil dhadakana ruk jaata hai aur saansen hi tham jaati hai. vo teri zulfon ki chhaaya , prem khoob barasaati hai. vo tere haathon ki chhuan, tan mein siharan laati hai. kabhi khushi de jaati hai to kabhi rulaake jaati hai. vo chalati phirati yaaden teri, jab bhi zahan mein aati hai. tere sang bitaaye l