आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
चाहत के समंदर में वो डूबती कश्ती तूने उससे चुल्लू भर पानी हटाया नहीं। कश्ती और पानी के रिश्ते को शायद, तुम समझ पायी नहीं या मैं समझ पाया नहीं। मैं हर बार लोटा भर बाहर उड़ेलता और तुम हो कि कश्ती को छेदती जा रही। छेदों से कश्ती छलनी होती जा रही अब मैं थक गया हूँ, इस कश्ती को बचाते बचाते। 11:00 AM १२/०९/२०१९