आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
कफ़न बँधे है माथे पर। चाप-तीर, असि-ढाल रखे है। हम शेरों से भी भिड़ जाएँ। शौक गज़ब के पाल रखे है। अरि आँख उठाकर देखे हम पर खून हमारी नस नस में खोले। "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले। हम आन, बान और शान के ख़ातिर अपनी जान भी सहज लुटाते है। हम मर जाएँ, मिट जाएँ लेकिन, इज़्ज़त ना दाव लगाते है। हम ज़ौहर करना सहज समझते, बजाय हम बैरी के हो लें। "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले। अंगुल-बांस के मापन से यहाँ "पृथ्वी" तीर चलाते है। बरदाई का दोहा सुनकर गोरी को मार गिराते है। बक्षीश मिले ना जयचन्दों को पग रिपुओं के डगमग डोले। "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले। यहाँ राणा का भाला भारी है। यहाँ मीरा की भक्ति न्यारी है। माँ पन्ना का त्याग अमोल यहाँ। यहाँ वीर जणे वो नारी है। ना नसीब रहे भले घास की रोटी पर राणा का ना मन डोले। "हम स्वाभिमान संग जीते है"- इस मिट्टी का कण-कण बोले। थकी नहीं हैं कलम "हरि" की राजस्थान का गौरव गाते-गाते। एक से बढ़कर एक शूरमा यहाँ इतिहास के पन्