कफ़न बँधे है माथे पर।
चाप-तीर, असि-ढाल रखे है।
हम शेरों से भी भिड़ जाएँ।
शौक गज़ब के पाल रखे है।
अरि आँख उठाकर देखे हम पर
खून हमारी नस नस में खोले।
"हम स्वाभिमान संग जीते है"-
इस मिट्टी का कण-कण बोले।
हम आन, बान और शान के ख़ातिर
अपनी जान भी सहज लुटाते है।
हम मर जाएँ, मिट जाएँ लेकिन,
इज़्ज़त ना दाव लगाते है।
हम ज़ौहर करना सहज समझते,
बजाय हम बैरी के हो लें।
"हम स्वाभिमान संग जीते है"-
इस मिट्टी का कण-कण बोले।
अंगुल-बांस के मापन से
यहाँ "पृथ्वी" तीर चलाते है।
बरदाई का दोहा सुनकर
गोरी को मार गिराते है।
बक्षीश मिले ना जयचन्दों को
पग रिपुओं के डगमग डोले।
"हम स्वाभिमान संग जीते है"-
इस मिट्टी का कण-कण बोले।
यहाँ राणा का भाला भारी है।
यहाँ मीरा की भक्ति न्यारी है।
माँ पन्ना का त्याग अमोल यहाँ।
यहाँ वीर जणे वो नारी है।
ना नसीब रहे भले घास की रोटी
पर राणा का ना मन डोले।
"हम स्वाभिमान संग जीते है"-
इस मिट्टी का कण-कण बोले।
थकी नहीं हैं कलम "हरि" की
राजस्थान का गौरव गाते-गाते।
एक से बढ़कर एक शूरमा
यहाँ इतिहास के पन्ने हमें बताते।
यहाँ "राम-राम" और "खम्मा घणी"
हर बार यहाँ आदर से बोले।
"हम स्वाभिमान संग जीते है"-
इस मिट्टी का कण-कण बोले।
---Hariram Regar
#SundayPoetry
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