आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
वसन्त यह अरसा बदल रहा है , यह सरसा बन रहा है। यह अपने तन - ज़हन में , सिहरन सा भर रहा है। मैं रहकर इसके आँचल में , खुशियाँ गा रहा हूँ। कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ। । 1 ।। सुमनों के सुंदर साये में , पेड़ों की पावन छाया में , मैं बैठा हूँ अकेला , हूँ उनसे मिलने आया मैं। पंख लगा उद्भावना के , मैं उड़ता जा रहा हूँ। कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ। । 2 ।। दॄष्टि डाली दूर तलक , इस फलक से उस फलक , दिख रहा है अलग थलग , छू रहा यह दिल तलक , बैठ करके गीत भ्रमर के , मैं गुन गुना रहा हूँ। कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ। । 3 ।। कहीं नीमौली निवड़ रही हैं , कहीं मंजरी फूट रही। वृक्षों की टहनी पर देखो , कोमल कलियाँ छूट रही। विलोक्यकर मैं विचित्र द़ृश्य , चित्र इसका बना रहा हूँ। कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ। । 4 ।। न सर्दी हमको कंपा रही , न गर्मी हमको तपा रही। मैँ उल्फत की बगिय