वसन्त
यह अरसा बदल रहा है,यह सरसा बन रहा है।
यह अपने तन-ज़हन में,सिहरन सा भर रहा है।
मैं रहकर इसके आँचल में,खुशियाँ गा रहा हूँ।
कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ।।1।।
सुमनों के सुंदर साये में,पेड़ों की पावन छाया में,
मैं बैठा हूँ अकेला,हूँ उनसे मिलने आया मैं।
पंख लगा उद्भावना के,मैं उड़ता जा रहा हूँ।
कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ।।2।।
दॄष्टि डाली दूर तलक,इस फलक से उस फलक,
दिख रहा है अलग थलग,छू रहा यह दिल तलक,
बैठ करके गीत भ्रमर के,मैं गुन गुना रहा हूँ।
कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ।।3।।
कहीं नीमौली निवड़ रही हैं,कहीं मंजरी फूट रही।
वृक्षों की टहनी पर देखो,कोमल कलियाँ छूट रही।
विलोक्यकर मैं विचित्र द़ृश्य,चित्र इसका बना रहा हूँ।
कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ।।4।।
न सर्दी हमको कंपा रही,न गर्मी हमको तपा रही।
मैँ उल्फत की बगिया में बैठा,यादें उसकी आ रही।
मैय्या के आँचल में दुबके,रूप निरखता जा रहा हूँ
कागज के कोरे पन्ने पर मैं लिखता जा रहा हूँ।।5।।
---By Hariram Regar
#SundayPoetry
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