आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
कठुआ काँड मेरे अन्तर्मन में ख़ूब गिला था जब इक कोमल सा दिल जला था। इंसानियत इस हद तक भी गिर सकती हैं , जब कठुआ काँड का पता चला था।। आज इंसानियत का पानी बेकार होते देखा है , एक - दो को नही आठ - आठ को सवार होते देखा है। अरे हैवानियत तो इतनी भर गई है दुनिया में , बड़ो का तो छोड़ो , बच्चों को रेपाहार होते देखा है।। उस अबोध बच्ची को नरक का फ़ील होते देखा है , नर रूपी हैवानों से ज़लील होते देखा है। चिन्ता उस बच्ची की नही है सरकारों को , मैंने तो मुद्दे को धर्म और राजनीति में तब्दील होते देखा है।।