आत्महत्या क्या विषाद था तेरे मन में? क्यों लटक गया तू फंदे पर? जो औरों को कन्धा देता, क्यों आज है वो पर कंधे पर? क्या गिला रहा इस जीवन से? जो अकाल काल के गले मिला। जिसको नभ में था विचरण करना, क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला? क्या इतना विशाल संकट था? जो जीकर ना सुलझा पाया। अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़? जो अपनो को ना बतलाया। क्या जीवन से भारी कोई जीवन में ही आँधी आई? इन छुट-मुट संकट के चक्कर में मृत्यु ही क्यों मन भायी? हाँ हार गया हो भले मगर, हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर, या जीत गया हो भले मगर, पर जीवन थोड़ी था हारा? अरे! हार जीत तो चलती रहती। इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
मैं सुबह-सवेरे साँझ-अँधेरे, तेरा ध्यान लगाता हूँ। हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ। हे गरलधर! हे नीलकण्ठ! तुम पूरे विश्व विधाता हो। राख-भभूति से लथपथ हो, भाँग के पूरे ज्ञाता हो। गले में माला शेषनाग की, विष्णु के तुम भ्राता हो। बड़ा सहारा भक्तों का हो, सब याचक तुम दाता हो। सोच यही हर पल, हर क्षण, मैं जमकर धूम मचाता हूँ। हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ। हे जटाधारी, कैलाशपति! तुम सृष्टि के महानायक हो। हे स्वरमयी महाकाल अनघ! तुम ताँडव के महागायक हो। तुम गंगाधर, तुम चन्द्रशेखर, तुम त्रिअक्षी, तुम हो अक्षर। हे शूलपाणि! हे उमापति! हे कृपानिधि! हे शिव शंकर! तेरे नाम अनेकों है जग में, उन नाम को मैं जप जाता हूँ। हे महाकाल! तेरे चरणों में अपना शीश झुकाता हूँ। हे व्योमकेश महासेनजनक! हे गौरीनाथ! हे पशुपति! हे वीरभद्र! हे पंचवक्त्र! हे मृत्युंजय! हे पुरारति! हे वामदेव! हे सुरसूदन! हे भुजंगभूषण! हे भगवन! हे प्रजापति! हे शिव शम्भू! हे सोमसूर्यअग्निलोचन! हाँ तू है "हरि", हूँ मैं भी "हरि", पर अंतर जमीं व नभ का है। इस धरा पे जब से आया हूँ म