धधक रही संग्राम की ज्वाला।
ना दया बची, ना मानवता है।
यहाँ कलह, कृन्दन और रूदन है।
ये मानव की ही दानवता है।
कहीं सिर पड़े, कहीं धड़ पड़े,
यहाँ शतकों जीवन पस्त हुए है।
हर रोज निकलते सपने लेकर
वो उगते सूरज अस्त हुए है।।
यहाँ बच्चे हैं, यहाँ बुढ़े है,
यहाँ भरी जवानी लोग घने है।
यहाँ बम बारूदों के मंज़र में,
लोगों पर ही लोग तने है।
कई जली झुग्गी झोपड़ियाँ,
कई कई सौ भवन ढहे।
ख़ाक हो गए सपने सारे
जहाँ घर के घर ही ध्वस्त हुए है।
हर रोज निकलते सपने लेकर
वो उगते सूरज अस्त हुए है।।
कैसे लिखूँ मैं दर्द पिता का ?
जिनके तनय चिता पर चिर सोए।
कैसे लिखूँ दर्द उन माँ का मैं?
जो अपने प्यारे सुत खोए।
कैसे बयाँ करूँ बहनों का दुःख?
जिनकी राखी रक्त से रंजित है।
कैसे दर्द कहूँ उन बच्चों का
जो अपनों से अब वंचित है।
कैसे लिखूँ दर्द उस दर्द का मैं
जिन घर के सारे दीप बुझे।
जहाँ रोने वाला बचा न कोई
ये देख 'हरि' के कंपित हस्त हुए है।
हर रोज़ निकलते सपने लेकर
वो उगते सूरज अस्त हुए है।
---Hariram Regar
#SundayPoetry
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