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Poem on Coronavirus Lockdown




कब तक सड़ूँगा पिंजरे में, अब जीऊं कैसे इन रंजिशों में।
अब ऊब गया हूँ जी करके , दुनिया की इन सब बंदिशों में।

मैं तो हवाओ का  झौंका  था ,  जाता था हर गांव - शहर।
यह थी पहले की हक़ीकत, बदल गयी अब ख्वाहिशों में।

तहस  -  नहस   हुआ   है,  जन  -  धन  इस  जहान  का।
सब कुछ थम - सा गया है,  इक  विषाणु  की  गर्दिशों में।

घर में बिस्तर  थक  गया  है,  बोले  तू  अब  तो  निकल।
दर्द भरा है दिल में और बाहर पुलिस की मालिशों  में।

क्या हाल ? ज़रा उनसे भी पूँछो, जो हर दिन कमाते खाते थे।
देशबन्दी  चक्कर में अब भूखे सोते बिन पर्वरिशों में। 

हर शख़्स परेशाँ होता है , जब संकट आये दुनिया भर में।
स्वार्थ सधा है इसके पीछे, कुछ लोगों की साज़िशों में। 

यह विषाणु रखे चाहत सिखाने की "मानव देह सब एक है"।
पर मानव तो उलझा है , धर्म और जातिगत बंदिशों में।  

घर पर रहे, स्वस्थ रहे, ख़त्म  हो ये महामारी अब। 
कोई भी भूखा ना मरे , 'हरिराम' कहे अपनी गुज़ारिशों में। 

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