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चाँद से गुफ़्तगू

चाँद से गुफ़्तगू 

तुम्हारी ये जुल्फें, तुम्हारी अदा,
तुम्हारी सूरत पर नीरव सदा। 
तेरी सूरत व सीरत है ऐसे बनी,
देखकर मैं तुझको हुआ हूँ फ़िदा। 

एक मैं हूँ यहाँ, एक तू है यहाँ,
खामोशियों का मंज़र भी यहाँ।
मैं खोया हूँ तुझमें, ज़रा इस कदर,
अब जाऊँ तो भी मैं जाऊं कहाँ। 

मैं तुझे देखतातू मुझे देखती।
ये ख़ामोशियाँ अब हमें देखती। 
चुप क्यों हो बैठी, बोलो तो ज़रा,
कुछ लब्ज़ मैं फेंकता,कुछ तुम फेंकती। 

फिर वो मुस्कुराके मेरी इसी बात पर,
देखा था उसने आसमां के चांद पर। 
हम दोनो की ही नज़रे थी तब चांद पर,
उसकी अम्बर में थी और मेरी उस पर। 

मेरे चांद की नज़रे जब चांद से हटी,
फिर खामोशियों की बादलियाँ घटी।
कुछ उसने कहा, कुछ मैंने कहा। 
यूँ ही बातों ही बातों में घड़ियाँ कटी। 

यूँ ही बातों का चश्का फिर चढ़ने लगा,
आस-पास का मौसम बिगड़ने लगा।
हमारे हालत ज़रा फिर गंभीर से हुए,
कि व्योम का चाँद भी बिछड़ने लगा। 

वो प्यारा सा चाँद बिछड़ता चला, 
फिर आगे की घटना पे पर्दा डला। 
अरे कहने को अब भी बहुत कुछ है,
लेकिन ना ही कहे तो है सबका भला। 


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