आत्महत्या
क्या विषाद था तेरे मन में?
क्यों लटक गया तू फंदे पर?
जो औरों को कन्धा देता,
क्यों आज है वो पर कंधे पर?
क्या गिला रहा इस जीवन से?
जो अकाल काल के गले मिला।
जिसको नभ में था विचरण करना,
क्यों बंद कक्ष-छत तले मिला?
क्या इतना विशाल संकट था?
जो जीकर ना सुलझा पाया।
अरे! इतनी भी क्या शर्म-अकड़?
जो अपनो को ना बतलाया।
क्या जीवन से भारी कोई
जीवन में ही आँधी आई?
इन छुट-मुट संकट के चक्कर में
मृत्यु ही क्यों मन भायी?
हाँ हार गया हो भले मगर,
हाँ कुछ ना मिला हो भले मगर,
या जीत गया हो भले मगर,
पर जीवन थोड़ी था हारा?
अरे! हार जीत तो चलती रहती।
इस हार से ही क्यों अँधियारा ?
यूँ जग को छोड़कर जाने वाले,
वीर नहीं, कायर होते है।
बस एक नहीं मसला जग में,
हर रोज नये दायर होते है।
अब झाँकने से क्या होता पीछे,
जब चुग गई चिड़ियाँ खेत यहाँ ?
बाँध के मुठ्ठी लाए थे तुम,
वक्त की अब वो रेत कहाँ ?
तुझे सोचना था, ऐ भले मनुज!
हर संकट का हल होता है।
जो आज पूर्ण ना काज हुआ,
हर रोज नया कल होता है।
अरे रुको ज़रा, तुम सबर करो।
जीवन क्या है? ये ख़बर करो।
यहाँ ख़ूब मौज़ मस्ती के मौके,
अरे खुद की तो खुद क़दर करो।
कर्म में खुद को व्यस्त करो।
हर संकट को तुम पस्त करो।
ये जीवन बड़ा अमोल है भैया।
यूँ जीवन को ना अस्त करो।
यूँ जीवन को ना अस्त करो।
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