© जिनसे जनता जानती जग को।
ये अपनी अश्मिता आँकते नभ को।
लिखी छपी सब सच मिलती थी,
खबर बड़ी या छोटी, सब को।
पर इसमें ऐसी बात कहाँ अब?
इसने छोड़ दिया है वो व्यवहार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।
चार खम्भों का लोकतन्त्र,
अखण्ड स्वराज हो यही मंत्र।
शनै शनै सब शीर्ण हो रहे,
चुनाव, सूचना,न्याय, राजतंत्र।
यहाँ खुद का खुद पर शासन हो,
अब बचा कहाँ ऐसा किरदार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।
नफ़रत का बाज़ार बसा है।
सत्ता ने जो कान कसा है।
इतना ज़हर भरा है इसमें,
जैसे इनको नाग डसा है।
कितनी बातें करते है ये,
जिनका नहीं निकलता सार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।
बने हुए है कठपुतली ये।
पर के इशारों पर नाचे।
सच को झूठ बताते है ये,
झूठ, बताते है साँचे।
बीज बो रहे नफ़रत के,
और छीन रहे है मूल अधिकार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।
जो प्रमुख मुद्दे है जनता के,
उनकी दूर दूर तक बात नहीं।
ये सच को सच में कह देंगे।
वो इनकी अब औक़ात नहीं।
अब सच का तो सूर्यास्त हो गया।
और झूठ बना है शहरयार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।
---Hariram Regar
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