Skip to main content

बिककर छपते है अख़बार | Bikakar chhapate hai Akhabaar | By Hariram Regar

© जिनसे जनता जानती जग को। 

ये अपनी अश्मिता आँकते नभ को। 

लिखी छपी सब सच मिलती थी,

खबर बड़ी या छोटी, सब को। 

पर इसमें ऐसी बात कहाँ अब?

इसने छोड़ दिया है वो व्यवहार। 

जो पहले छपकर बिकते थे,

अब बिककर छपते है अख़बार। 


चार खम्भों का लोकतन्त्र,

अखण्ड स्वराज हो यही मंत्र। 

शनै शनै सब शीर्ण हो रहे,

चुनाव, सूचना,न्याय, राजतंत्र। 

यहाँ खुद का खुद पर शासन हो,

अब बचा कहाँ ऐसा किरदार। 

 जो पहले छपकर बिकते थे,

अब बिककर छपते है अख़बार। 


नफ़रत का बाज़ार बसा है। 

सत्ता ने जो कान कसा है। 

इतना ज़हर भरा है इसमें,

जैसे इनको नाग डसा है। 

कितनी बातें करते है ये,

जिनका नहीं निकलता सार। 

जो पहले छपकर बिकते थे,

अब बिककर छपते है अख़बार। 


बने हुए है कठपुतली ये। 

पर के इशारों पर नाचे। 

सच को झूठ बताते है ये,

झूठ, बताते है साँचे। 

बीज बो रहे नफ़रत के,

और छीन रहे है मूल अधिकार। 

जो पहले छपकर बिकते थे,

अब बिककर छपते है अख़बार। 


जो प्रमुख मुद्दे है जनता के,

उनकी दूर दूर तक बात नहीं। 

ये सच को सच में कह देंगे।

वो इनकी अब औक़ात नहीं। 

अब सच का तो सूर्यास्त हो गया। 

और झूठ बना है शहरयार। 

जो पहले छपकर बिकते थे,

अब बिककर छपते है अख़बार।

---Hariram Regar

**********************


अखबार की सच्चाई: एक काव्यात्मक समीक्षा

आजकल का अखबार, जिसे कभी जनता की आवाज़ माना जाता था, अब अपनी वास्तविकता खो चुका है। इस कविता के माध्यम से कवि हरिराम रेगर ने अखबार की बदलती भूमिका और उसकी सच्चाई को उजागर किया है। आइए इस कविता की गहराई में जाकर समझें कि कैसे अखबार अब बिकता है और जनता की सच्चाई की आवाज़ नहीं रह गया है।

कविता की शुरुआत में कवि ने अखबार की पुरानी छवि को प्रस्तुत किया है, जब अखबार सच्चाई और वस्तुपरक जानकारी का स्रोत हुआ करता था:

"जिनसे जनता जानती जग को।
ये अपनी अश्मिता आँकते नभ को।
लिखी छपी सब सच मिलती थी,
खबर बड़ी या छोटी, सब को।"

पूर्व में, अखबार एक आदर्श संचार का माध्यम था, जहाँ सभी खबरें - बड़ी हो या छोटी - निष्पक्षता के साथ छपती थीं। लेकिन अब यह स्थिति बदल गई है। अखबार ने अपना वो व्यवहार छोड़ दिया है जो पहले हुआ करता था। अब यह बिकता है, और उसकी सच्चाई बिक जाती है:

"पर इसमें ऐसी बात कहाँ अब?
इसने छोड़ दिया है वो व्यवहार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।"

कवि ने यह भी इंगित किया है कि चार खंभों का लोकतंत्र और अखंड स्वराज का मंत्र धीरे-धीरे भ्रष्ट हो गया है। चुनाव, सूचना, न्याय और राजतंत्र सभी चीजें अब ढह रही हैं। इस बदलते परिदृश्य में अखबार की भूमिका भी संदिग्ध हो गई है:

"चार खम्भों का लोकतन्त्र,
अखण्ड स्वराज हो यही मंत्र।
शनै शनै सब शीर्ण हो रहे,
चुनाव, सूचना,न्याय, राजतंत्र।"

कविता में नफरत का बाजार और सत्ता की भूमिका पर भी गहरी टिप्पणी की गई है। सत्ता ने मीडिया को अपने इशारों पर नचाया है, और सच्चाई को झूठ के रंग में ढाल दिया है:

"नफ़रत का बाज़ार बसा है।
सत्ता ने जो कान कसा है।
इतना ज़हर भरा है इसमें,
जैसे इनको नाग डसा है।"

इन नकारात्मक परिवर्तनों के चलते, अखबार अब कठपुतली बन गया है, जो सत्ता के इशारों पर नाचता है और सच्चाई को झूठ के साँचे में ढालता है:

"बने हुए है कठपुतली ये।
पर के इशारों पर नाचे।
सच को झूठ बताते है ये,
झूठ, बताते है साँचे।"

कविता में यह भी उल्लेखित है कि प्रमुख मुद्दों को अखबार अब हाशिए पर रखता है। सच्चाई का सूर्यास्त हो चुका है और झूठ ही प्रमुख बन गया है:

"जो प्रमुख मुद्दे है जनता के,
उनकी दूर दूर तक बात नहीं।
ये सच को सच में कह देंगे।
वो इनकी अब औक़ात नहीं।"

अखबार का यह बदलता रूप समाज के लिए एक चिंतन का विषय है। वह सच्चाई जिसे कभी अखबार अपने पन्नों पर प्रकाशित करता था, अब बिकता है और उसके स्थान पर झूठ का प्रचार होता है:

"अब सच का तो सूर्यास्त हो गया।
और झूठ बना है शहरयार।
जो पहले छपकर बिकते थे,
अब बिककर छपते है अख़बार।"

हरिराम रेगर की यह कविता हिंदी कविताओं में अपने अनूठे दृष्टिकोण के लिए महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि अखबार की भूमिका और उसका प्रभाव समाज पर कैसा हो गया है। हिंदी कविताओं के इस संग्रह में यह कविता एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है, जो हमें मीडिया की वास्तविक स्थिति पर गहराई से सोचने पर विवश करती है।

-Team HindiPoems.in



Comments

Popular Posts

जय चित्तौड़(गीत)

'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा शहर हिला दूंगा हाँ 'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा विश्व हिला दूंगा दुश्मन जो अड़ जाए मुझसे , मिट्टी में मिला दूंगा हाँ मिट्टी में मिला दूंगा, उसे मिट्टी में मिला दूंगा 'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा शहर हिला दूंगा x2 हाँ 'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा विश्व हिला दूंगा।।1 ।। आन बान की बात जो आती , जान भी दाव लगा देते x2 अपनी इज़्जत के खातिर हम, अपना शीश कटा देते X2 हम तो है भारतवासी , न रुकते है, न झुकते है x2 ऊँगली उठी अगर किसी की,  दुनिया से उठा देते x2 उसे ऐसा मजा चखाउंगा, कि सब कुछ ही भुला दूंगा x2 हाँ 'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा विश्व हिला दूंगा।।2।। मीरा बाई हुई जहाँ पर ,कृष्ण से इसको प्रीत लगी x2 छोड़ दिया घर बार था इसने, दुनिया से न प्रीत लगी x2 ज़हर का प्याला इसने पीया, डरी डरी सी कभी न रही x2 अंत में उससे जा मिली ,जिससे थी इसको प्रीत लगी x2 शक्ति और भक्ति की गाथा सबको मैं सुना दूंगा x2 हाँ 'जय चित्तौड़' मैं  गाऊंगा तो, सारा विश्व हिला दूं...

4 Line Shayari in Hindi | By Hariram Regar

4 Line Shayari in Hindi | By Hariram Regar ************************************************ कभी मक्की, कभी गेंहूँ, कभी है ज्वार की रोटी।  मेरी माता बनाती है, कभी पतली, कभी मोटी।  मगर क्या स्वाद आता है, भले वो जल गई थोड़ी।  नसीबों में कहाँ सब के, है माँ के हाथ की रोटी।।                                                                                                 ©Hariram Regar ************************************************ कोई नफ़रत है फैलाता, कोई बाँटे यहाँ पर प्यार।  कहानी और किस्सों से खचाखच है भरा संसार।  यहाँ कुछ लोग अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने फिरते।  मगर किस्से नहीं कहते जहाँ खुद ही है वो गद्दार।।               ...

Self Respect || By Hariram Regar

स्वाभिमान(Self Respect)  जिस दिन तेरे हाथ में लाठी होगी। जिस दिन तेरी साँझ ढलेगी। वो दिन कितना प्यारा होगा? जिस दिन तू "हरि" से मिलेगी। ये लब्ज़ तेरे है, वचन तेरे है। इन वचन पे आँच न लाऊँगा। मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला। मान नहीं खो पाऊँगा। जो तेरा मेरा यह रिश्ता है।  इसका तुझको कोई भान नहीं। मेरे गाँव से तेरा क्या नाता? इसका भी तुझको ध्यान नहीं। और तेरे गाँव में तेरा "सब कुछ" है। ये बात मैं कैसे पचाऊँगा? मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला  मान नहीं खो पाऊँगा। ये इत्तिफ़ाक रहा या मक़सद था ?  इस ज्ञान का मैं मोहताज़ नहीं। मैं ज़मीं पे चलता मानव हूँ, तेरे जैसा अकड़बाज़ नहीं।  जिस घर में कोई मान न हो,  उस घर आँगन न जाऊँगा।  मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला  मान नहीं खो पाऊँगा। कितने घूँट ज़हर के पीऊँ? कितने झूठ सहन कर जीऊँ? मैं सीना ठोक के चलने वाला  ये ज़मीर ना माने झुक के जीऊँ। अरे झुकने को सौ बार झुकूँ मैं। पर हर बार नहीं झुक पाऊँगा। मैं खुद को ज़िन्दा रखने वाला मान नहीं खो पाऊँगा। --- Hariram Regar #SundayPoetry